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सत्य-आरोहण
एक प्रस्तावना, सात पड़ाव और एक उपसंहार के साथ जीवन का नाटक
पात्र:
लोक-सेवक निराशावादी वैझानिक कलाकार तीन बिधार्थी दो प्रेमी संन्यासी दो साधक
प्रस्तावना : चित्रकार की चित्रशाल में, प्रारंभिक गोष्ठी । आरोहण के सात पड़ाव, और सातवां पड़ाव शिखर पर होगा । उपसंहार : नयी दुनिया ।
प्रस्तावना
चित्रकार की चित्रशाला में
(सांध्यवेला 'सत्य' की खोज में लगे समान अभीप्सा मैं सम्मिलित दल की बैठक क्वे अंत मैं !
उपस्थित
सद्भावनापूर्ण मनुष्य लोक-सेवक
निराशावादी जिसका मोह भय हो क्या है ! बह अब धरती पर सुख की संभावना को नहीं मानता !
बैज्ञानिक जो प्रकृति कि समस्याओं को हल करने की कोशिश मैं ह्वै कलाकार जो अधिक सुन्दर आदर्श के सपने लेता है
तीन विधार्थियों का दल (दो लड़के एक लड़की) जिन्हें अधिक अच्छे जीवन पर और अपने अपर विश्वास है !
दो प्रेमी जो मानद प्रेम में पूर्णता की खोज कर रहे हैं !
संन्यासी जो 'सत्य' की खोज के लिये किसी मी तपस्या क्वे लिये तैयार है !
दो साधक जिन्हें समान अभीप्सा ने इकट्ठा कर दिया है उन्होने अनंत को हुन है क्योंकि 'अनंत' ने उन्हें चून लिया है !
(परदा उठता हैं !)
कलाकार-प्यारे दोस्तों, अब हमारी सभा विसर्जित होने को हैं । इससे पहले कि हम समाप्त करें और अपने संगठित कार्यक्रम के बारे मे कुछ संकल्प लें, मै आप लोगों से फिर से यह जान लेना चाहता हू कि क्या आप अपने पहले वक्तव्य मे और कुछ जोड़ना चाहते हैं?
लोकसेवक-हां, मै फिर से कहना चाहता हू कि मैंने अपना सारा जीवन लोक-सेवा के लिये समर्पित कर दिया है; मैंने बरसों तक सभी परिचित और संभव पद्धतियों को अपनाकर देखा, परंतु कोई संतोषजनक परिणाम नहीं निकला और अब मुझे विकास हो गया हैं कि यदि मैं अपने काम में सफलता चाहूं तो मुझे 'सत्य' की खोज करनी होगी । सचमुच, जबतक जीवन के सच्चे अर्थ का हीं पता न हो तबतक मनुष्य की सार्थक रूप से सहायता कैसे की जा सकती है? इस बीच जो कुछ उपचार किये जायें. वे ऊपरी मरहम-पट्टी होंगे-सच्चे इलाज नहीं हो सकते । केवल 'सत्त' की चेतना ही मानवजाति का उद्धार कर सकती है ।
निराशावादी-मैंने जीवन में बहुत दुःख झेले हैं । मै बहुत भ्रांतियों में पड़कर निराश
हुआ हूं, कितने अन्याय सहे हैं, कितनी मुसीबतें उठाये हैं । अब मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा, जगत् से या मनुष्य सें कोई आशा नहीं रहीं । अब केवल एक आशा बच गयी है और वह हैं 'सत्य'-संधान की-लेकिन वह भी तभी जब उसे पा - लेना संभव हो ।
'पहला साधक- आप लोग हम दोनों को एक साथ देख रहे हैं क्योंकि एक ही अभीप्सा हमारे जीवन को एक-दूसरे के निकट ले आयी हैं; हमारे अंदर शरीर या प्राण का भी कोई आकर्षण नहीं हैं । हमारे जीवन मे बस, एक ही धुन ३ : वह ३ 'सत्य'- संधान की।
एक प्रेमी- (साधक-साधिका की ओर देखकर? लेकिन हम दोनों इन दो बंधुओं से बिलकुल उलटे हैं, (अपनी प्रिया का आलिंगन करते हुए) हमारा जीवन एक-दूसरे के लिये, और एक-दूसरे के आधार पर खड़ा है ! पूर्ण मिलन हीं हमारी सबसे बढ़ी महत्त्वाकांक्षा हैं, हमारे दो शरीर हों, पर दोनों में सत्ता एक ही हो, हमारे विचार, हमारी इच्छाएं, हमारी भावनाएं एक हों; दो सीनों में एक हीं सांस चले और दो हृदयों में एक ही धड़कन हों । हमारे हृदय प्रेम के द्वारा, प्रेम में और प्रेम के लिये हीं जीवित हैं । हम प्रेम के संपूर्ण सत्य को खोजना चाहते हैं : हमने अपना जीवन इसी के लिये समर्पित कर दिया है ।
संन्यासी-लकिन मुझे नहीं लगता कि 'सत्य' इतनी आसानी से पाया जा सकता है । जो पथ हमें 'सत्य ' तक ले जायेगा वह कठोर, कगार जैसा ढलुऔ, नाना प्रकार की विपत्तियों, आपदाओं और भयंकर भ्रांतियों से भरा होगा । इन सब विपदाओं को पार करने के लिये अटल संकल्प-शक्ति और इस्पात की नारियों की जरूरत है । मैंने जो महान लक्ष्य अपने सामने रखा है, उसको पाने के लिये, उसके योग्य बनने के लिये सब प्रकार का त्याग, सब प्रकार की तपस्या करने और सब प्रकार का घोर कष्ट सहने को तैयार हूं ।
कलाकार- (सबकी ओर देखकर) आप लोगों को और कुछ नहीं कहना? नहीं । तो हम लोग एक. मत हैं : हम लोग एक साथ मिल-जुलकर 'सत्य' की ओर सिर उठाये हुए इस पुनीत पर्वत पर चढ़ने का प्रयास करेंगे । यह काम बढ़ा कठिन और श्रमसाध्य है, परंतु है करने योग्य, क्योंकि उसकी चोटी पर पहुंचने से 'सत्य' के दर्शन होंगे और सभी समस्याएं आवश्यक रूप से हल हो जायेंगी ।
तो हम लोग कल पहाड़ की तलहटी में मिलेंगे और एक साथ चढ़ना शुरू करेंगे । अच्छा, अब नमस्कार, कल फिर मिलेंगे ।
(सब ''फिर मिलेंगे' ' कहकर चले जाते हैं ?)
४६० आरोहण के सात पड़ाव पहला पड़ाव
(पहाड़ के ऊपर हरी-भरी समतल भूमि च्छा से नीचे तलहटी का दृश्य अच्छी तन दिखायी देता है अभीतक रास्ता चिढ़ और सहज था अब अचानक संकरा हों उठता है और वार्ड ओर की ऊंची-छबि चट्टानों पर चक्कर थमाता हुआ आये बढ़ता है !
सब सामर्थ्य और उत्साह से भरे हुए यक साथ ' हैं? सबने निवे तलहटी पर निगाह डाली लोक-सेवक के इशारे पर सब नजदीक आते है!)
लोकसेवक-मित्रों, मै आपसे कुछ कहना चाहता हू । मुझे कुछ गंभीर बातें कहनी हैं । (सब कुपचाप ध्यानपूर्वक सुनते हैं !
हम बड़ी खुशी-खुशी, आराम सें, एक साथ इस उच्च भूमि तक चढ़ आये हैं । यहां से हम जीवन को देख सकते हैं, उसकी समस्याओं को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं और मनुष्य के दुखों के कारण को भी समझ सकते हैं । हमारा ज्ञान अधिक विस्तृत और गहरा हो गया है और मै जो हल ढूंढना चाहता था उसे हम पा सकते हैं । (मौन)
लेकिन अब हम एक नये मोड़ पर आ पहुंचे हैं जहां एक निश्चय करना होगा । आगे और भी खड़ी और कठिन चढ़ाई है । इस पर तुर्रा यह कि हम पहाड़ के उस ओर चले जायेंगे जहां से नीचे की वादी को और मनुष्यों की देख भी न सकेंगे । इसका मतलब यह हैं कि मुझे अपना काम छोड़ देना होगा और मानवसेवा के व्रत को तोड़ देना होगा । अब मुझे अपने साथ रहने के लिये न कहीये; आप लोगों को छोड़कर मुझे अपना कर्तव्य पूरा करने के लिये जाना हीं होगा ।
(वह नीचे की ओर उतरता है सब जरा विस्मय और निराशा के सक् एक- दूसरे की ओर देखते हैं !)
संन्यासी-बेचारा मित्र ! नीचे की ओर चल पहा, कर्तव्य की आसक्ति, बाह्य जगत् के बाह्य रूपों की मोहमाया ने उसे जकड़े लिया । किंतु हमारे उत्साह मे रत्ती-भर कमी न आनी चाहिये; हम किसी खेद या दुविधा के बिना अपने रास्ते पर बढ़ते चले ।
(सब आये बढ़ते हैं ।)
दूसरा पड़ाव (रास्ते का हिस्सा एक और सीधी चढ़ाई रास्ता समकोण पर घूम जाता है जिससे यह नहीं मालूम होता है कि किधर जा रहा है नीचे लंबे सफेद बहुत घने बादल ने इस हिस्से को दुनिया ले बिलकुल अलग कर दिया है!
निराशावादी को छोड़कर सब न्यूनाधिक आनंद में क्ले जा रहे हैं निराशावादी सबसे पीछे पांव घसीटता हुआ आ खा है आखिर रास्ते क्वे किनारे एक ऊंची-सी जगह देखकर बैठ जाता है अपने सिर को दोनों हाथों में लेकर वह गुमसुम बैठा ही रहता है औरों ने यह देखा तो सब उस ओर मुझे छात्र ने लौटकर उसके कंधे पर हाथ रखा !)
छात्र- अरे, भई, क्या हुआ? बात क्या है ? थक नये क्या?
निराशावादी- (उसे पीछे हटाते हुए ) नहीं, मुझे छोड़ दो । मुझे छोड़ दो । बहुत हो चुका, और नहीं चाहिये! यह असंभव है !
बिधार्थी-लेकिन बात क्या है ? चलो, उठे, हिम्मत से काम लो!
निराशावादी-नहीं, नहीं, मैं कह तो चुका, मुझसे कुछ न होगा । यह मूर्खतापूर्ण और असंभव दुः साहस का काम है । (पैरों-तले बादल दिखाकर) देखो न, हम संसार से और जीवन से एकदम बिछुड़े गये हैं । अब समझने के लिये आधार-स्वरूप कुछ नहीं रहा, कुछ भी नहीं रहा ।
(फिर मुड़कर रास्ते के मोड़ की ओर देखता है !) और इधर देखो! यह भी पता नहीं लगता कि हम किधर जा रहे हैं! सारी चीज हीं निरर्थक या भांतिपूर्ण-या शायद दोनों-है ! आखिर, शायद खोजने योग्य कोई 'सत्य' हैं भी नहीं । यह जगत् और यह जीवन एक नरक है जिसमें से निकलने का कोई रास्ता नहीं, हम उसमें बंदी बने हुए हैं । तुम्हारी इच्छा हों तो आगे बढ़ते जाओ, लेकिन मै तो अब टस-से-मस न होऊंगी, मै और अधिक बेवकूफ नहीं बनना चाहता!
(फिर दोनों हाथों में सिर रख लेता है बिधार्थी उसे समज्ञ सकने की आशा छोड़ देता है देर होने के डर से उसे अपनी निराशा के सक् छोड़कर औरों के सक् चढ़ने लगता है !)
तीसरा पड़ाव
(वैज्ञानिक और कलाकार दल मे सबके पीछे चले आ रहे हैं मानों बातों के कारण पीछे रहा गये हैं !बातचीत का अंतिम मान !)
४६२ वैज्ञानिक-हां, जैसा मै कह रहा था, मुझे लगता हैं कि हम जस हल्के-फुलके भाव से, गंभीरता के बिना ही इस अभियान पर चल पढ़ें हैं !
कलाकार-यह तो ठीक है कि अभीतक हमारी चढ़ाई काफी निष्फल-सी रहीं हैं । मैं यह नहीं कहता कि हमें बहुत-सी चित्ताकर्षक वस्तुओं को देखने का अवसर नहीं मिला, लेकिन ये सब चीजें बहुत लाभदायक नहीं निकली ।
वैज्ञानिक-हां, मुझे तो अपनी ही पद्धति पसंद हैं-हमारी विधि ज्यादा युक्तियुक्त है। वह निरंतर परीक्षण पर आधारित हैं और मै पहले कदम की सत्यता के बारे में निश्चित प्रमाण पाये बिना दूसरा कदम आगे नहीं बढ़ाता । चली, हम अपने साथियों को जस आवाज दे लें- मुझे उनसे कुछ कहना है । (आवाज देकर और हाथ के हारे से सबको पास बुत्कर वैज्ञानिक उन्हें संबोधित करता है!)
मेरे प्यारे मित्रों और एक हीं पथ के सहयात्रियो, हम जगत् से और उसको कठोर वास्तविकता से जितनी दूर होते जा रहे हैं, उतना ही मुझे यह लग रहा हैं कि हम बचकाने काम में लगे हैं । हमें यह बोध दिया गया था कि यदि हम इस सीधी बढ़नेवाले पहाड़ की चोटी तक चढ़ सकें-जहां अभीतक कोई नहीं पहुंच पाया है-तो हम 'सत्य' को पा लेंगे- और हम रास्ते के बारे में जानकारी प्राप्त किये बिना मुंह उठाकर चल पड़े । कौन कह सकता हैं कि हम रास्ते में भटके नहीं हैं? कौन विश्वास के साथ कह सकता है कि हमें आशा के अनुसार हीं फल मिलेगा? मुझे लगता है कि हमने अक्षय्य चंचलता के साथ काम किया हैं और हमारा यह प्रयास बिलकुल अवैज्ञानिकता मुझे बड़ा दुःख के साथ कहना पड़ता है कि मैंने यहीं रुकने का निश्चय किया हैं । आप लोगों के साथ मेरी मैत्री अक्षुण्ण बनी रहेगी, परंतु मै यहीं रुककर समस्या का अध्ययन करुंगा और यदि संभव हो तो शिक्षित रूप से यह पता लगाऊंगा कि कौन-से रास्ते से आगे बढ़ना चाहिये, सही रास्ते से जिससे हम लक्ष्य तक अवश्य जा पहुँचें ।
(थोडी देर के बाद) इसके अतिरिक्त, मुझे यह विश्वास हो गया है कि यदि मै पृथ्वी की किसी मामूली-से-मामूली चीज की रचना का पूरा रहस्य जान लूं, उदाहरण के लिये, रास्ते के इस तुच्छ पत्थर के रहस्य को भी जान लूं तो उसी से मैं उस 'सत्य' को भी पा सकूंगी जिसकी हमें खोज हैं । अच्छा, तो फिर मै यहीं ठहरूगा और आप सबसे कहूंगा : '' पुनर्दर्शनाय' ' -हां, मैं सचमुच ''पुनर्दर्शनाय' ' कह रहा हूं, क्यग़ॅक मैं आशा करता हूं कि या तो आप लोग मेरे और मेरी वैज्ञानिक पद्धति के लिये यहां लौट आयेंगे, या मै जिस चीज की खोज मे हूं उसे पकार आप लोगों को खुशखबरी देने वहां आ जाऊंगी ।
कलाकार-मैं भी आप लोगों का साथ छोड़नी की सोच रहा हूं। मेरा और हमारे वैझानिक मित्र का कारण एक तो नहीं है, पर हैं उतना ही जोरदार ।
इस मनोरम चढ़ाई में, मैंने बहुत-से अनुभव प्राप्त किये हैं : मैंने नये सौंदर्य को
४६३ देखा है; या यूं कहें कि मेरे अंदर सौंदर्य के एक नये बोध का प्रादुर्भाव हुआ है । साथ हीं, एक तीव्र और अदम्य इच्छा उत्पन्न हो रहे है कि मैं अपनी अनुभूति को भौतिक रूप दूं उन्हें 'जड़-तत्त्व' के अंदर उतार जाऊं, ताकि वे सबके शिक्षण में सहायक हों सकें और विशेष रूप से यह भौतिक जगत् आलोकित हो उठे ।
तो, बढ़े दुःख के साध आप सबसे अलग हो रहा हूं, और जबतक अपनी नूतन अनुभूतियों को मूर्त रूप न दे लुंगी तबतक मै यहीं रहूंगा । भूखे जो कुछ करना हैं उसे साकार कर चुकने के बाद, मैं फिर से चढ़ाई आरंभ कर दंगा और आप लोग जहां जा पहुंचे होंगे वहीं आ मिछंगा और नवीन खोज में लग जऊंगा ।
अच्छा, तो आप चलिये, आपका मार्ग शुभ हो ।
(सब लीन जरा दुःख के साथ देखते हैं बिधार्थी कह उठती है )
विधार्थिनी-इस प्रकार के पथ-त्याग से हमारा कुछ नहीं बनता-बिछड़ता! हर व्यक्ति अपनी नियति के अनुसार चलता है और अपनी प्रकृति के अनुसार काम करता है । हमें अपने अभियान से कुछ नहीं रोक सकता । चलो, जरा भी थके बिना, साहस और धैर्य के साथ हम लोग अपने रास्ते पर बढ़े ।
(वैज्ञानिक और कलाकार को छोड्कर सब आये बढ़ते हैं )
चौथा पड़ाव
(साधक साधिका .और संन्यासी बिना रुके निशित और स्थिर गति से आये बढ़ता जाते हैं?
उनके पीछे प्रेमी युगपत् हैं हाथ में हाथ डाले बिना किसी की परवाह किये अपने- आपमें मस्त चले जा रहे हैं?
सबके पीछे तीन बिधार्थी हैं देखने मैं थके हुए लगते हैं है सकते हैं)
पहला बिधार्थी-उफ़! भाई, क्या चढ़ाई हैं यह! बाप-रे-बाप । क्या रास्ता है! बस, चढ़ने ही जाओ, कहीं रुकने का नाम हीं नहीं-दम लेने की फुरसत नहीं । मैं तो अब थक चला ।
विधार्थियों-यह भी कोई बात है भला! तुम भी हमें छोड़ जाना चाहते हो? यह भी कोई भद्रता हुई!
पहला बिधार्थी- अरे नहीं, नहीं, छोड़नी का सवाल नहीं है । लेकिन क्या हम थोड़ा आराम भी नहीं कर सकते? जरा बैठकर दम भी नहीं ले सकते? ओह, पैर मन- मन-भर के हो रहे हैं ! जरा-सा आराम कर लेने है अधिक अच्छी तरह चढ़ जायेगा । अच्छा, अब जस दया करो और थोड़ा बैठ जाओ, सिर्फ थोडी ही देर के लिये । उसके बाद हम फिर चल पढ़ेंगे, तब देखना कैसी तर्ज से चढ़ जायेगा ।
४६४ दूसरा बिधार्थी- अच्छा । हम तुम्हें यहां पडे-पड़े उदास होने के लिये अकेले नहीं छोह देंगे । इसके अतिरिक्त, भूखे भी तो थोड़े-सी थकान लग रहीं है । आओ, सभी थोडी देर बैठ लें और रास्ते में जो कुछ देखा-सीखा हैं उसकी बातचीत करें ।
विधार्थिनी- (क्षण-भर हिचकिचाकर वह मई बैठ जाती है !) चलो, यहीं सही । तुम्हारा साथ नहीं छोड़ना चाहती, इसीलिये । लेकिन ज्यादा देर न बैठना । रास्ते में देर करना हमेशा खतरनाक होता है ।
(प्रेमी और प्रेयसी मुड़कर देखते हैं कि ये तीनों बैठ गये फिर आगे चल पढ़ते हैं !)
पांचवां पड़ाव
(स्थान बहुत ऊंचा हैं रास्ता और मी संकरा है क्षितिज बहुत विशाल हो क्या है ! नीचे घने सफेद बादलों के कारण वादी अब मी दिखायी नहीं देती बायीं ओर रास्ते ले जरा हटाकर एक छोटा-सा मकान है जिसके सामने खत्ता आसमान है !पहले तीन बिना रूके आये बढ़ गये !उनके पीछे गत्ढ़बहियां किये, अपने ही स्वप्नों में मस्त प्रेमी- आते हैं)
प्रेयसी- (एकान्त देखकर) वाह, और कोई नहीं... । हम अकेले हैं । लेकिन दूसरों की क्या परवाह! हमें उनकी जरूरत नहीं-हम एक-दूसरे के साथ कितने खुश हैं !
प्रेमी- (रास्ते के पास का मकान देखकर? देखो तो, प्रिय, ढाल पर यह छोटा-सा मकान, कितना सुनसान, फिर भी कितना मनोरम, कितना अंतरंग, पर फिर भी अनंत आकाश की ओर खुला हुआ है । ऐसा लगता हैं मानों खास हमारे लिये हीं बना हो । हमें और क्या चाहिये? हमारे मिलने के लिये यह आदर्श स्थान है । क्योंकि हम दोनों ने पूर्ण, अखण्ड मिलन प्राप्त कर लिया है जिसमें परछाई या बादलों का भी स्थान नहीं है । जो चढ़ रहे हैं उन्हें उस अशिक्षित 'सत्य' की ओर चटते रहने दो--हम दोनों को तो अपना सत्य मिल हीं गया । हमारे लिये यही काफी हैं ।
प्रेयसी-हां, प्रियतम । चलो, जाकर इस मकान में डेरा डालें और अपने प्रेम का रसास्वादन करें । और किसी की क्या परवाह!
(दोनों एक-दूसरे क्वे गले में कहें डाले ही मकान की ओर जाते हैं !)
४६५ छठा
(रास्ते का अंत बहुत अधिक संकरा हो क्या है और अचानक एक बड़ी च्छान के आये आगे जाता है ! चाहना सिर उठाकर सीधी आकाश ले बातें कर रहे है । चोटी दिखायी तक नहीं देती बायां ओर थोडी-सी समतल भूमि है उसके पतली ओर पक छोटी-सी नीची झोपड़ी है सारा स्थान निर्जन और असर दिखता है
आखिरी तीन यात्री एक साथ ना पहुंचाते हैं? संन्यासी रुकता है और बाकी दोनों को मी हशारे ले रोकता है !)
संन्यासी-मुझे आप दोनों सें एक बहुत आवश्यक बात कहनी है । आप सुनूंगा ? इस चढ़ाई में मैंने अपने सच्चे स्वरूप को, अपनी सच्ची 'सत्ता' को पा लिया हैं । मै 'शाश्वत' के साथ एकाकार हो गया हूं, मेरे लिये अब और किसी का अस्तित्व ही नहीं है, अब मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं रहीं । अब जो कुछ 'वह' नहीं है वह एक व्यर्थ की भांति है । तो मेरा ख्याल है कि मैं पथ के अंत पर आ पहुंचा हूं । (बायीं ओर की समतल भूमि दिखाकर) और वह देखो, यह कैसा महान् और निर्जन स्थान है । मैं अब जिस प्रकार का जीवन बिताना चाहता हूं, यह स्थान उसके ठीक अनुकूल है । मैं वहां जाकर धरती और मनुष्यों सें के , जीवित रहने के कर्तव्य से भी मुक्त होकर ध्यान कर सकूंगा ।
(और कुछ कहे- विना पीछे देखे श बिदा लिये बिना हई सीधा अपनी व्यक्तिमत सिद्धि के लक्ष्य की ओर चला जाता है?
साधिका और साधक अकेले रह नये हैं संन्यासी क्वे व्यवहार की भव्यता से प्रभावित होकर अहोने एक- की ओर देखा फिर तुरंत सम्यक नये ! साधिका बोल उठी:
साधिका- नहीं, नहीं! यह कमी 'सत्य' नहीं हो सकता, यह पूर्ण 'सत्य' नहीं है । यह सारी विध-सृष्टि केवल श्रमजल नहीं हो सकतीं जिससे भाग खड़ा होना जरूरी हो । इसके अतिरिक्त, अभी तो हम पर्वतशिखर पर नहीं पहुंचे, अभी तो हमारी चढ़ाई खतम नहीं हुई ।
साधक- (रास्ता सीधी दीवार जेली विहान पर आकर खतम हो जाता है ! उसे दिखाते हुए) तैयार रास्ता तो यहां खतम हो रहा है । मेरा ख्याल है कि कोई मनुष्य इससे आगे नहीं गया । इस दीवार जैसी सीधी चट्टान पर चढ़ना तो एकदम असंभव-सा हैं । इसे पार करने के लिये हमें अपने-आप पग-पग पर रास्ता बनाना होगा । यहां बिना किसी सहायता या मार्ग-दर्शक के अपने ही प्रयास से, केवल अपने संकल्प
४६६ और अपनी श्रद्धा के बल पर आगे बढ़ना होगा । निःसंदेह हमें अपना मार्ग अपने- आप हीं काटकर तैयार करना होगा ।
साधिका- (उत्साह के साध) कोई परवाह नहीं! चलो, बढ़े चले, हमेशा बढ़ते चालें । अभी हमारी खोज के लिये बहुत कुछ बाकी है : इस सृष्टि के पीछे एक अर्थ है । हमें उसे खोज निकालना है ।
(दोनों फिर चक्र पढ़ते हैं !)
सातवां पड़ाव
(साधक-साधिका बड़ी वीरता क्वे साथ सब विप्त-बाधाओं को पार करके आये हैं और अब दूत जोर लगाकर पूर्ण प्रकाश मे पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाते हैं यहां सब कुछ ज्योतिर्मय है च्छान के उस संकरे इससे को छोड़कर जिस पर दोनों की मुश्किल ले खड़े हैं सब कुछ ज्योतिर्मय है !)
साधक- आखिर हम शिखर पर आ पहुंचे! दमकता हुआ, चाधियानेवाला 'सत्य', उसके सिवा कुछ नहीं !
साधिका- और सब कुछ अदृश्य हो गया है । हम इतना परिश्रम करके जिन पीढ़ियों पर चढ़कर यहांतक पहुंचे हैं वे मी गायब हो गयीं ।
साधक- आगे-पीछे, इधर-उधर, चारों ओर शन्य-ही-श्ल्य है; सिर्फ पैर रखने के लिये जगह हैं, और कुछ नहीं ।
साधिका- अब किधर जायें? क्या करें?
साधक-यहां तो बस, 'सत्य'-हीं-'सत्य' हैं, चारों ओर, सब दिशाओं मे एकमात्र 'सत्य' ।
साधिका-लेकिन उसे प्राप्त करने के लिये अभी और मी आगे जाना होगा । और इसके लिये एक और रहस्य की खोज करनी होगी ।
साधक-यह स्पष्ट है कि यहां व्यक्तिगत प्रयास की संभावना तक खतम हो जाती है । अब एक और शक्ति को आकर हस्तक्षेप करना होगा ।
साधिका- अब 'कृपा', केवल 'कृपा' हीं काम कर सकती है । वही आगे का पथ खोल सकतीं है, वही महान चमत्कार दिखा सकती है ।
साधक-(क्षितिज की ओर हाथ फैलाकर) देखो, देखो उधर, दूर, उस अतल खाई के उस पार एक शिखर दिखायी देता है । कैसा अनुपम, सर्वागसुन्दर, सुषमापूर्ण, आलोकित और अद्भुत रूप सें सामंजस्यपूर्ण हैं । यह वही पुण्यभूमि है, यह वही तपोभूमि है जिसके बारे में हमें आदेश दिया गया था!
साधिका-हां, हमें वहीं जाना चाहिये । पर कैसे?
४६७ साधक-यदि हमें वहां पहुंचना ह्वै तो हमें रास्ता भी जरूर मिल जायेगा ।
साधिका-हां, श्रद्धा रखनी चाहिये, 'कृपा' पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिये, भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण होना चाहिये ।
साधक-हां, 'भगवान् की. इच्छा' के सामने पूर्ण समर्पण की जरूरत है । जब कोई ।. रास्ता न दिखता हो तब हमें पूर्णतया निर्भय होकर, बिना किसी हिचकिचाहट के, पूरी श्रद्धा के साथ छलांग लगानी होगी ।
साधिका- और हमें अपने गंतव्य स्थान तक पहुंचा दिया जायेगा ।
(दोनों छलांम मारते हैं ??
उपसंहार
सिट्टी
(जादू-भरी ज्योति का देश)
साधक-लो, हम आ पहुंचे । कोई अद्भुत शक्ति अदृश्य पंखों पर यहांतक उड़ा लायी ! साधिका-(चारों ओर देखते हुए) कैसी अद्भुत ज्योति है । अब बस, नवजीवन जीना सीखना बाकी है ।
(परदा गिरता है
! ४६८
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